ये संवाद मुझे बहुत पसंद है...मायावती जी को भी मैं यही डायलॉग सुनाना चाहता हूं...इत्तेफ़ाक से गांधी की 62वीं पुण्यतिथि पर ही मैं इस पोस्ट को टाइप कर रहा हूं...दरअसल हम में ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने गांधी को रु-ब-रू देखा होगा...गांधी को दुनिया से गए 62 साल हो गए...इसलिए गांधी के बारे में हमारी जो भी धारणा है वो हमारे घरों में बुज़ुर्गों के मुंह से सुनाई गई बातों पर आधारित है...इसलिए गांधी का आप दिल से सम्मान नहीं करते तो फिर राजघाट, गांधी के बुत, स्मारक, साहित्य के आपके लिए कोई मायने नहीं है...और यदि आप गांधी का दिल से सम्मान करते हैं तो भी इन बुतों का कोई औचित्य नहीं है...क्योंकि गांधी तो आपके दिल में हैं...वहां से उन्हें कोई ताकत नहीं हटा सकती...
बहन मायावती जी से भी मैं यही कहना चाहता हूं...अगर आप अपने कामों से गरीब-गुरबों, पिछड़े-कुचले वर्गों के दिलों में जगह बना लेती हैं (या कहीं कहीं बना भी ली है) तो फिर आपको किस बात का डर...फिर आप जिन्हें मनुवादी कहती रही हैं वो लाख कोशिश कर लें इतिहास में आपका नाम दर्ज होने से नहीं रोक सकते...मायावती जी के लिए मेरी सारी शुभकामनाएं हैं...अगर वो किसी दिन देश की प्रधानमंत्री बनती हैं तो मैं इसलिए खुश नहीं हूंगा कि एक दलित की बेटी प्रधानमंत्री बनी...मैं इसलिए खुश हूंगा कि बादलपुर गांव की बेटी तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद पढ़ लिख कर अपनी योग्यता के बल पर देश की सबसे बड़ी कुर्सी तक पहुंची...
अब आता हूं अपनी पोस्ट पर मिली विचारोत्तेजक टिप्पणियों पर...पहले प्रवीण शाह भाई की टिप्पणी जस की तस...
खुशदीप जी,
बहन मायावती जी ऐसा क्यों कर रही हैं इसको समझने के लिये आपको दलित मानस को भी समझना पढ़ेगा, काफी चिंतन-मनन है इस सब के पीछे... अभी बस इतना ही कहूँगा कि यह क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है...सदियों से हाशिये पर रखे गये वर्ग जिसने आजादी से न जाने क्या-क्या उम्मीद लगाई हुई थीं...उस वर्ग की उम्मीदें योजनाबद्ध तरीके से तोड़ीं गई... वोट बैंक से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझा गया जिनको...उनकी प्रतिक्रिया...ठेंगा दिखाती, मुँह चिड़ाती, अपने जागने, खुद के महत्व को पहचानने का उदघोष करती एक प्रतिक्रिया...मेरे ऊपर के टिप्पणीकारों ने जो कमेंट दिये हैं ऐसे कमेंट मिलेंगे यह पता था उस दलित नेत्री को... जितना ऐसा कहा जायेगा...दलित चेतना उतना ही जागृत होगी...मुद्दों को, असमानता को, भेदभाव को किनारे कर अपने और केवल अपने हित की चिन्ता करते खाते पीते, पेट भरे, लिबराइजेशन और ग्लोबलाइजेशन की गाय को दुहते, अगड़े बुद्धिजीवी वर्ग के सौन्दर्यबोध और कम्फर्ट लेवल को भले ही यह कदम चोट पहुंचाता है...पर यह उठाया भी इसी लिये गया है। और हाँ, कभी समय मिले तो गिनती करियेगा कि हमारे अघोषित पर निर्विवाद राजवंश के सदस्यों के कितने बुत खड़े हैं देश में, कितना खर्चा हुआ उन पर, कितनी सड़कें, संस्थान, पुल हवाई अड्डे, चौराहे, बाजार आदि आदि हैं उनके नाम पर ?
फिर आई पीसी गोदियाल जी की टिप्पणी...
@ प्रवीण जी शायद सही कह रहे है !
दलितों का तर्क देखिये : अगर मायावती के बुतों से आपको दिक्कत हो रही है तो फिर क्यों ये लालकिले, क़ुतुब मीनार, ताज महल इत्यादि को जीवित रखे हो, और इतने अरबो रूपये हर साल रख-रखाव पर खर्च कर रहे हो ? इनको बनाने में भी तो हजारो निरीह, गरीब मजदूरों का शोषण और बलिदान हुआ था ! कल तुम्ही लोग, तुम्हारी ही सरकारे, मायावती के स्मारकों को भी उसी तरह संजोयेंगी जैसे आज आप लोग लाल किले को संजो के रखे हो ! लेकिन प्रवीण जी एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि मायावती का उद्देश्य चाहे जो भी हो, लेकिन मुझे दुःख इस बात का है कि यह सब मेरे पैसे से और मेरे बच्चो का पेट काटकर बनाया जा रहा है इसलिए मैं इसका विरोध कर रहा हूँ ! इज्जत बुत बनाने से नहीं दिलो में जगह बनाने से मिलती है ! आज आप उत्तर प्रदेश के हालात देख रहे है ? फिर भी ये भेड़े बार बार इसी गडरिये को कुर्सी सौंप रही है !
फिर मेरे अज़ीज़ धीरू भाई की टिप्पणी...
यह कोई नया तो काम नही है सदियो से बुत बनवाये जाते रहे है .बेचारी दौलत माफ़ किजिये दलित की बेटी ने अगर मूर्ति अपनी लगवाली तो क्या गुनाह किया . आप और हम जैसे उच्च मानसिकता के लोगो को कोई काम ही नही है इसके अलावा...
आप तीनों की बात अपनी जायज़ है...लेकिन यहां मेरे मन में कुछ सवाल उमड़ते हैं...इन्हें देश के एक आम नागरिक के नज़रिए से लीजिएगा, किसी जाति या पेशे से बांध कर नहीं...मायावती जी 21 मार्च 1997 को पहली बार और 13 मई 2007 को चौथी बार देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं...पहली तीन बार से इस बार की अहमियत इसलिए ज़्यादा है क्योंकि मायावती सिर्फ अपनी पार्टी बीएसपी को मिले बहुमत के आधार पर सत्ता में आईं...यानि इस बार मायावती जैसे स्वतंत्र होकर फैसले ले सकती हैं, पहले नहीं ले सकती थीं..लेकिन यहां मैं सवाल करता हूं कि क्या उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार होने बिल्कुल बंद हो गए हैं...क्या गांवों में गरीब खुशहाल हो गए हैं...क्या तालीम की रौशनी हर गरीब बच्चे को मिलने लगी है...क्या गांवों में पानी, बिजली, शौचालय जैसी बुनियादी ज़रूरतों की व्यवस्था हर घर में हो गई है...पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में आज भी दलितों को वोट नहीं डालने दिए जाते...क्या वहां सब ठीक हो गया...
आप कहेंगे कि जादू की छड़ी से पलक झपकते ही ये काम नहीं हो सकते...इसमें वक्त लगेगा...सही बात है आपकी...लेकिन क्या वो इच्छाशक्ति ईमानदारी से दिखाई दे रही है...मायावती बिना किसी लागलपेट कहती हैं कि उन्हें पार्टी चलाने के लिए पैसा चाहिए, इसलिए वो अपने लोगों से चंदा कर इसे जुटाती हैं...चाहे जन्मदिन के बहाने सही...लेकिन मायावती जी आप इन गरीबों की ताकत के बल पर सत्ता में हैं तो आपकी योजनाएं वाकई गरीबों का जीवन-स्तर उठाने वाली होनी चाहिए...आप की योजनाएं जिस तरह अरबों खर्च कर स्मारक बनाने के लिए स्पष्ट हैं, सुप्रीम कोर्ट तक की नाराज़गी मोल ले लेती हैं, वैसे ही गरीबों (गरीब मतलब गरीब, बिना किसी जाति का विभेद किए) के कल्याण के लिए भी काम होता साफ दिखना चाहिए...
किसी जमाने में ये नारा ज़रूर सुना जाता था कि तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार...लेकिन आज आप सर्वजन समाज की बात करती हैं...अब नारे भी बदल गए हैं...हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है...
यहां मैं अब कुछ सवाल उठाने जा रहा हूं, उस पर मुझे आरक्षण विरोधी नहीं मान लीजिएगा...ये सच है कि जब पढ़ता था तो सीपीएमटी में 85 प्रतिशत नंबर लाने के बाद भी उत्तर प्रदेश के किसी मेडिकल कालेज में दाखिला नही पा सका था...सिर्फ गाजीपुर के होम्योपैथी मेडिकल कॉलेज में सीट मिली थी, जहां मैने खुद ही एडमिशन नहीं लिया था...उस वक्त एक किशोर के अपरिपक्व मस्तिष्क की तरह ही मुझे बड़ा गुस्सा आया था कि मेरे से आधे भी कम नंबर पाने वाले लोग सिर्फ आरक्षण की बैसाखी थामकर मेडिकल कालेज में एमबीबीएस या बीडीएस में प्रवेश पा गए और मैं सिर्फ अपने भाग्य को कोसता रहा कि मैं क्यों सवर्ण घर में पैदा हुआ...मुझे भी ऐेसे घर में पैदा होना
चाहिए था जहां जाति के आधार पर मुझे आरक्षण का लाभ मिल जाता....लेकिन जैसे-जैसे सोच परिपक्व होनी शुरू हुई, वैसे मुझे भी लगा कि जो सदियों से ऊंची जातियों का अत्याचार सहते आए हैं, उनको आगे लाने और समाज में समरस करने के लिए सरकार ने आरक्षण जैसी व्यवस्था की है तो कोई बुराई नहीं की...लेकिन यहां मेरा फिर सवाल है कि क्या वाकई आरक्षण ने समाज समरस कर दिया...
आज मेडिकल कालेज में सवर्ण, पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के छात्रों के गुट साफ-साफ अलग नजर आते हैं...यानि हम आरक्षण के ज़रिए चले तो थे भेदभाव मिटाने और ये और बढ़ गया...ये हमारे नीतिनिर्माताओं की भूल थी कि वो आरक्षण को ही सामाजिक बदलाव का एकमात्र औज़ार समझ बैठे...आरक्षण का भरपूर लाभ अनुसूचित जातियों की क्रीमी लेयर ने उठाया...आर्थिक स्थिति से सुदृढ़ हो जाने के बावजूद ये क्रीमी लेयर अपनी अगली पीढ़ियों को आरक्षण का लाभ दिलाती रही है...लेकिन गांव का गरीब कलुआ कलुआ ही रहा...वो कल भी समाज के ताने सहने के साथ जीवन जीने को अभिशप्त था...वो आज भी वैसा ही जीवन जी रहा है...
आज़ादी के वक्त कहा गया था कि आरक्षण सिर्फ दस-पंद्रह साल तक रहेगा..लेकिन हर दस साल बाद इसे बढ़ाया जाता रहा...मैं ये नहीं कह रहा कि आरक्षण नहीं होना चाहिए...मेरा आग्रह सिर्फ इतना है कि ऐसी व्यवस्था बने कि जिसमें एक गरीब के बच्चे को भी वैसी ही शिक्षा का अधिकार मिले जैसा कि एक अमीर के बच्चे को मिलता है...हमारी सरकार शिक्षा के राष्ट्रीयकरण के बारे में क्यों नहीं सोचती...टैक्स का पैसा शिक्षा पर लगाया जाए तो वो देश का सच्चा निवेश होगा...गरीबों के बच्चों को अच्छी से अच्छी कोचिंग, किताबें, वर्दी, वज़ीफ़ा दिलाने का सरकार प्रबंध करे जिससे वो अमीरों के बच्चों के शिक्षा के स्तर तक बराबरी पर आ सकें...इस काम में वक्त लगेगा...लेकिन शुरुआत तो कीजिए...बच्चों को उनकी प्रतिभा के अनुसार बहुत छोटी उम्र में ही छांटिए...ज़रूरी नहीं सारे ग्रेजुएट बनें...अगर कोई खेल में अच्छा प्रदर्शन दिखा रहा है तो उसे बेसिक शिक्षा के साथ स्पोर्ट्स की बेहतरीन ट्रेनिंग दिलाई जाए...मायावती जी हो या राहुल गांधी अगर वाकई दलितों या गरीबों के दिल से हितेषी हैं तो समरस समाज बनाने के लिए शिक्षा से ही पहल करें...ऐसी व्यवस्था कीजिए कि अगर किसी के मां-बाप बच्चे की अच्छी शिक्षा का खर्च उठाने में समर्थ नहीं है तो सरकार अपने पैसे से उस बच्चे को पढाए-लिखाए...और जब वो बच्चा कुछ बन जाए तो वो अपनी कमाई से उस पैसे को सरकार को वापस कर दे जो बचपन में उसकी पढ़ाई पर सरकार ने लगाया था...ये पैसा फिर और गरीब बच्चों की पढ़ाई पर काम आएगा...इस तरह जो आने वाली पीढ़ियां आएंगी उनकी सोच वाकई बहुत खुली होगी और उनमें एक दूसरे के लिए नफ़रत नहीं बल्कि सहयोग का भाव होगा...ये भावना होगी कि सबको मिलकर भारत को आगे बढ़ाना है...अब
आप सोचिए राजघाटों, शांतिवनों, शक्ति स्थलों, वीर भूमियों या अंबेडकर स्मारकों पर अरबों रुपया बहाना सही है या गरीब चुन्नू या नन्ही की शिक्षा पर पैसा खर्च करना...
रही मूर्तियों के ज़रिए चेतना जगाने की बात तो अभी दो दिन पहले भाई रवीश कुमार जी की एक पोस्ट देखी थी...उसमें उन्होंने कमाल की तस्वीर लगाई थी...आरा से दीपक कुमार जी ने रवीश भाई को ये तस्वीर भेजी थी...ये तस्वीर थी जयप्रकाश नारायण जी की मूर्ति की...जेपी कभी किसी सरकारी पोस्ट में नहीं रहे...वो लोगों के दिलों में रहे...इसलिए उनकी मूर्ति के लिए अरबों रुपये के स्मारक या पार्क की ज़रूरत नहीं है सिर्फ दो पत्थर ही बहुत हैं...शायद बुतों में अहम पूरा होता दिखने वालों को इस तस्वीर से ही कोई संदेश मिले....
आभार रवीश कुमार जी