आप सोच रहे होंगे कि मैं किस मददग़ार की बात कर रहा हूं. जनाब माया नाम की ये वो मोहतरमा है जो एक दिन घर में अपने चरण ना डालें तो घर में भूचाल-सा आ जाता है. अपना तो घर में बैठना तक दूभर हो जाता है. पत्नीश्री के मुखारबिन्दु से बार-बार ये उदगार निकलते रहते हैं- यहां मत बैठो, वहां मत बैठो. एक तो ये मेरी जान का दुश्मन लैप-टॉप. मैं सुबह से घर में खप रही हूं. इन्हें है कोई फिक्र. पत्नीश्री का ये रूप देखकर अपुन फौरन समझ जाते हैं, आज माया घर को सुशोभित करने नहीं आने वाली है.
तो जनाब ऐसी है माया की माया. वैसे तो ये मायाएं हर घर में आती हैं लेकिन इन्हें नाम से इनके मुंह पर ही बुलाया जाता है. जब ये सामने नहीं होती तो इनके लिए नौकरानी, आया, बाई, माई, कामवाली और ज़्यादा मॉड घर हों तो मेड जैसे संवेदनाहीन शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है. जैसे इंसान की कोई पहचान ही न हो. किटी पार्टी हो या कोई और ऐसा मौका जहां दो या दो से ज़्यादा महिलाओं की गपशप चल रही हो, वहां ये सुनने को मिल ही जाता है- इन कामवालियों ने तो नाक में दम कर रखा है. जितना मर्जी इनके साथ कर लो, लेकिन ये सुधरने वाली नहीं.
तो जनाब मैं अपनी पत्नीश्री की मददगार माया की बात कर रहा था. माया की तीन साल की एक बेटी है-लक्ष्मी और पति ढाबे पर काम करता है. काम क्या करता है, बस जो मेहनताना मिलता है, ज़्यादातर ढाबे पर ही दारू में उड़ा आता है. माया और उसके पति को यहां नोएडा में एक कोठी में रहने के लिए उसकी मालकिन ने एक छोटा सा टीन की छत वाला कमरा दे रखा है. अब ये भी सुन लीजिए कि ये मालकिन इस दयादृष्टि की माया से कीमत क्या वसूल करती है. कोठी की सफ़ाई, घास की कटाई, पेड़-पौधों में पानी देना, मालकिन के कहीं जाने पर कोठी की चौकीदारी करना और न जाने क्या-क्या. ज़रा सी चूक हुई नहीं कि बोरिया-बिस्तर उठा कर सड़क पर फेंक देने की धमकी. ठीक उसी अंदाज में जिस तरह कभी अमेरिका में गुलामी के दौर में अफ्रीकियों के साथ बर्ताव किया जाता था. ऐसी दासप्रथा नोएडा की कई कोठियों में आपको देखने को मिल जाएगी.
ऐसे हालात में माया को जब भी मैंने घर पर काम के लिए आते-जाते देखा, ऐसे ही लगा जैसे कि किसी तेज़ रफ्तार से चलने के कंपीटिशन में हिस्सा ले रही हो. अब जो मां काम पर आने के लिए छोटी बच्ची को कमरे में अकेली बंद करके आई हो, उसकी हालत का अंदाज़ लगाया जा सकता है. ऐसे में मेरी पत्नीश्री ने भी गोल्डन रूल बना लिया है जो भी दान-पुण्य करना है वो माया पर ही करना है. हां, एक बार पत्नीश्री ज़रूर धर्मसंकट में पड़ी थीं- पहले देवों के देव महादेव या फिर अपनी माया. दरअसल पत्नीश्री हर सोमवार को मंदिर में शिवलिंग पर दूध का एक पैकेट चढ़ाती थीं. दूध से शिवलिंग का स्नान होता और वो मंदिर के बाहर ही नाले में जा गिरता. सोमवार को इतना दूध चढ़ता है कि नाले का पानी भी दूधिया नज़र आने लगता. एक सोमवार मैंने बस पत्नीश्री को मंदिर से बाहर ले जाकर वो नाला दिखा दिया. पत्नीश्री अब भी हर सोमवार मंदिर जाती हैं...अब शिवलिंग का दूध से नहीं जल से अभिषेक करती हैं... और दूध का पैकेट माया के घर उसकी बेटी लक्ष्मी के लिए जाता है.. आखिर लक्ष्मी भी तो देवी ही है ना.
लक्ष्मी की बात आई तो एक बात और याद आई. मेरी दस साल की बिटिया है. पांच-छह साल पहले उसके लिए एक फैंसी साइकिल खरीदी थी. अब बिटिया लंबी हो गई तो पैर लंबे होने की वजह से साइकिल चला नहीं पाती थी... साइकिल घर में बेकार पड़ी थी तो पत्नीश्री ने वो साइकिल लक्ष्मी को खुश करने के लिए माया को दे दी. लेकिन बाल-मन तो बाल-मन ही होता है...हमारी बिटिया रानी को ये बात खटक गई...भले ही साइकिल जंग खा रही थी लेकिन कभी बिटिया की जान उसमें बसती थी..वो कैसे बर्दाश्त करे कि उसकी प्यारी साइकिल किसी और को दे दी जाए...वो लक्ष्मी को दुश्मन मानने लगी.. लाख समझाने पर आखिर बिटिया के कुछ बात समझ आई. दरअसल ये मेरी बिटिया का भी कसूर नहीं है. पब्लिक स्कूलों में एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़, फ्रेंच-जर्मन भाषाएं न जाने क्या-क्या सिखाने पर ज़ोर दिया जाता है लेकिन ये छोटी सी बात कोई नहीं बताता कि एक इंसान का दिल दूसरे इंसान के दर्द को देखकर पिघलना चाहिए. हम भी बच्चों को एमबीए, सीए, डॉक्टर, इंजीनियर बनाने के लिए तो कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते लेकिन ये कम ही ध्यान देते हैं कि हमारे नौनिहाल कुछ भी बनने से पहले अच्छे इंसान बने.
चलिए अब माया की गाथा यहीं निपटाता हूं. 10 बज गए हैं, माया अभी तक नहीं आई है और पत्नीश्री का पारा धीरे-धीरे चढ़ना शुरू हो रहा है..इससे पहले कि अपने लैपटॉप बॉस को पत्नीश्री के अपशब्द सुनने पड़ें, सीधे स्लॉग ओवर पर आता हूं.
स्लॉग ओवर
हरियाणा में एक चौधरी साहब बड़े मजे से साइकिल पर कप्तान बने हवा-हवाई हुए जा रहे थे.. सामने से एक ताई आ गई..चौधरी साहब से कंट्रोल हुआ नहीं और साइकिल ताई पर जा दे मारी...अब ताई ने जो चौधरी की खबर लेनी शुरू की... तेरियां इतनी बड़ी-बड़ी मूच्छां, तैणे शर्म ना आवे से...चौधरी साहब तपाक से बोले- ताई, पहला मैणे इक बात बता...मेरिया मूच्छां में क्या ब्रेक लाग रे से...
बहुत रोचक, मज़ा आया पढ़कर...
जवाब देंहटाएंयही माया की माया है जी जो हमारे यहाँ कभी ममता, तो कभी मनीषा और कभी स्वाति, संगीता के नाम से आती रहती है।
जवाब देंहटाएंमगर सच यही है कि घर के लोगों को 'इनका' काफ़ी 'ध्यान' रखना होता है।
इंसानियत की क्लास कब की बंद हो चुकी
जवाब देंहटाएंकामवाली का काम तो कठिन होता ही है. सर्दी, गर्मी या हो बरसात की उमस, जिस समय हम आराम से बिस्तर में लेटे चाय की चुस्कियां ले रहे होते हैं, उस समय ये बर्तन या पोछा रगड़ रही होती हैं. इस में कोई शक नहीं की उन्हें भी घर के मेंबर की तरह ट्रीट करना पड़ता है और चाहिए भी क्योंकि आखिर वो भी तो इंसान हैं. लेकिन खुशदीप भाई, इतनी हमदर्दी भी कभी मत दिखाना की पत्नीश्री को कोई ग़लतफ़हमी होने लगे. ये मामले बड़े नाज़ुक होते हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील पोस्ट. काश की नौकरों को भी सब लोग इंसान समझें.
चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है.......
जवाब देंहटाएंगुलमोहर का फूल
बहुत संवेदनशील विषय। आपने आज के सच व जीवन के शाश्वत मूल्यों की बात की है। बहुत ही सरलता से गहरे विचार रखे हैं।
जवाब देंहटाएंसहगल जी हमारे देश मे अभिजात्य वर्गीयों द्वारा अभी भी अर्थिक दृष्टि से विपान्न लोगों से गुलाम की तरह ही काम लिया जाता है। इस ओर आपने स्टीक इशरा किया है ।
जवाब देंहटाएंBahut Barhia... IBlog ki dunia me aapka swagat hai...si Tarah Likhte rahiye.
जवाब देंहटाएंhttp://hellomithilaa.blogspot.com
Mithilak Gap Maithili Me
http://mastgaane.blogspot.com
Manpasand Gaane
http://muskuraahat.blogspot.com
Aapke Bheje Photo
maya ki maya....behad mazedaar aur sachha lekh
जवाब देंहटाएंnarayan narayan
जवाब देंहटाएंha.. ha.. ha... sachmujh mujhe aisa laga jaise ye maine likha hai.... kya sare vivahit purusho ka jeevan ek sa hai?
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....हमने पढ़ा
जवाब देंहटाएंऔर लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 22/04/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!
बहुत रोचक और संवेदनशील प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंकितनी सहजता से इतनी बड़ी बात कह दी आपने...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद...
हिन्दी भाषा की ख़ासियत ही यही है की सहज शब्दो मे सरलत से जटील बात को दर्शाया जा सकता है....बहुत खूब सहगल साहब....
जवाब देंहटाएं-Pritesh